विभिन्न देशों में शरणार्थी जीवन जी रहे तिब्बती इन दिनों अपने नये साल लोसर को मनाने में जुटे हैं, जिससे भारत में भी तिब्बती बस्तियों में उत्सव का महौल है। गीत संगीत की मधुर धुनों पर युवा बड़े बुजुर्ग नाचते थिरकते नजर अर रहे हैं। खासकर धर्मशाला में तो इन दिनों खासी रौनक देखी जा रही है। यहां हर तिब्बती जशन में डूबा नजर आ रहा है। जिसमें भारतीय व विदेशी भी पीछे नहीं हैं। तमाम होटल व गैस्ट हाऊस पूरी तरह से पैक हो चुके हैं। जहां दावतों का दौर जारी है।
दुनिया भर का मिडिया भी धर्मशाला में लोसर मनाने के तिब्बती तौर तरीकों को देखने के लिये यहां जुटा है। धर्मशाला व मैकलोडगंज में 10 फरवरी से तिब्बती बाजार बंद हैं। यह अब 13 फरवरी को ही खुलेंगे। चूंकि तिब्बती दुकानदार भी जशन में शामिल हैं। धर्मशाला के तिब्बतीयों के लिये इस बार खास बात यह है कि तिब्बतीयों के अध्यात्मिक नेता दलाई लामा भी लोसर के मौके पर इस बार धर्मशाला में ही हैं। जिससे उनकी खुशी दुगनी हो गई है। तिब्बतीयों के लिये लोसर उनका सबसे बड़ा त्यौहार है।
दलाई लामा ने लोसर के अवसर पर उनसे मिलने आये तिब्बतीयों को संबोधित करते हुये कहा तिब्बत की समस्या कभी नहीं मरेगी, तिब्बती समस्या सत्य पर आधारित है और सत्य कभी नहीं मरता। यह समय के साथ मजबूत और स्पष्ट हो जाएगा। दलाईलामा ने कहा कि तिब्बत की समस्या का समाधान के लिए तिब्बतीयों को हमेशा सचेत रहना चाहिए। तिब्बतीयों के कंधों पर तिब्बत की समस्याओं के समाधान की जिम्मेदारी है।
धर्मशाला में चारों ओर ताशी देलेक ताशी देलेक की गूंज सुनाई दे रही है। लोसर यहां 12 फरवरी तक मनाया जायेगा। भारत व दूसरे देशों में रह रहे तिब्बती लोसर के जशन की तैयारियां दस दिन पहले ही से शुरू कर देते हैं। हालांकि चीनी नियंत्रण वाले तिब्बत में यह बीस दिनों तक मनाया जाता है।
तिब्बती नववर्ष लोसर के प्रथम दिन को तिब्बती समुदाय के सभी लोग घरों में ही रहते हैं। परंपरा के अनुसार पहले दिन तिब्बती परिवारों के बच्चे और पुरुष नहाते हैं व दूसरे दिन महिलाओं के नहाने की परंपरा है। तीसरे दिन तिब्बती परिवार अपने घरों की साफ-सफाई करके आकर्षक ढंग से सजाते हैं। तिब्बती युवाओं तेन्जिन छवांग, तेन्जिन देदेन, छेरिंग फुंग्चुक ने बताया कि लोसर पर्व का उन्हें साल भर इंतजार रहता है। इस पर्व के दौरान निर्वासित तिब्बती विशेष पूजा अर्चना कर ईष्टदेव से बुरी आत्माओं को घरों से दूर करने तथा उनके घरों में निवास करने की कामना की जाती है।
तिब्बती समुदाय लोसर पर्व के लिए दो माह पहले छांग (देसी मदिरा) तैयार करना शुरू कर देता है। देसी मदिरा का पहले अपने ईष्ट को भोग लगाया जाता है, उसके बाद स्वयं या रिश्तेदारों को आदान-प्रदान किया जाता है। वहीं समुदाय पर्व के दौरान भगवान को चढ़ाने के लिए मैदे से खपस (मटर की तरह दिखने वाले) व्यंजन बनाते हैं।
तिब्बती बुजुर्गों के अनुसार पुराने समय में लोसर पर्व पर भेडा काटा जाता था और उसका सिर ईष्ट देव को चढ़ाया जाता था। अब बदलते दौर में मांस के बजाय समुदाय के लोग मक्खन से बना भेड़ का सिर ईष्टदेव को चढ़ाकर पूजा करते हैं। समुदाय के लोगों का कहना है कि अब भेड़ काटना पसंद नहीं करते हंै, जिसके चलते मक्खन से भेड़ का सिर बनाकर इसे चढ़ाया जाता है।
लोसर पर्व पर मैक्लोडगंज के प्रमुख बौद्ध मठ में विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। तिब्बत में तो लोसर पर्व का आयोजन 15 से 20 दिनों तक चलता है, लेकिन भारत के विभिन्न हिस्सों में रह रहे तिब्बती तीन दिनों तक इस पर्व को मनाते हैं। इस दिन तिब्बतियों द्वारा भिखारियों को दान दिया जाता है।
लोसर एक तिब्बतियन शब्द है जिसका मतलब है नए साल की शुरुआत। लओ का मतलब साल और सर का मतलब नया। अगर हम इतिहास के पन्नें पलटें और इसके बारे में बात करें तो प्री-बुधिस्ट समय में तिब्बती बोन धर्म को मानते थे तब हर साल सर्दियों के समय में एक धार्मिक समारोह का आयोजन किया जाता था, जिसमें लोग धूप का प्रयोग करके स्थानीय आत्माओं, देवताओं और संरक्षकों को नए साल में लाने के लिए मनाते थे।