आम चुनावों की तिथियों की घोषणा हो चुकी है और जाहिर सी बात है कि इस बार चुनावों में एक मुद्दा इलेक्टोरल बांड का भी रहेगा । चन्दा लेना जुर्म नही। भारत मे पॉलीटकल फंडिंग का यह तरीका हमेशा से रहा है। अगर बात मैं नब्बे के दशक की करूं तो हिमाचल पुलिस के लिए वर्दियां और स्वेटर इत्यादि की सप्लाई ओसवाल ग्रुप द्वारा की जाती थी, तब प्रतिस्पर्धा कम थी फिर भी कंपनियां यह सुनिश्चित कर लेना चाहतीं थीं कि टेन्डर उन्हें ही मिले इसलिए औपचारिकता वश ग्रुप के एमडी मुख्य नेताओं से मिलना नहीं भूलते थे और जब वो उनसे मिलते थे तो उन्हें कहा जाता था टेंडर आप को ही मिलेगा बस आप पार्टी फंड में इतने पैसे डाल दीजिए ! गाहे-बगाहे एसी बातें ड्रॉइंग रूम डिस्कशन का हिस्सा हो जाया करती थीं क्योंकि तब न इन्टरनेट था न ही सोशल मीडिया!
सत्ता में आने जाने वाले दल, नीतियां निर्धारित करते हैं। एक नीति, अरबो के वारे न्यारे करवा सकती है । कहने का मतलब है लाभ देने के सैंकड़ो तरीके हैं तो लाभ घटाने के भी। सरकार की एक पॉलिसी आपको चौपट कर सकती है। सत्ता में जाने कौन, कब आ जाये, तो व्यापार जगत, सबसे बनाये रखना चाहता है। वो मजबूरन चन्दा देता है। और पार्टियां मजबूरन लेती हैं।
आखिर वोट देने वाले भी शराब, नगदी लेते हैं। पोस्टर, बैनर, प्रचार, रैली, शोरगुल, और टीवी अखबार के पॉजिटिव रिव्यू के साथ-साथ पेड न्यूज सब पर कितना खर्चा किया जाता है किसी से छिपा नहीं है !
पैसे लगाने वाले ही नेता पीएम सीएम के दावेदार होते हैं। पार्टी लीडर, टिकटें और राज्यसभा की सीटें तक बेचते है फंड के लिए और बाद में विधायकों की खरीद फरोख्त और सरकारें गिराने बनाने के लिए भी शायद !!
इलेक्टोरल बांड से चन्दा सबने लिया है। सवाल यह भी नही कि 90% एक ही दल को कैसे गया। मेरे हिसाब से सवाल यह भी नही होना चाहिए कि किस कम्पनी को किस चन्दे के एवज में कौन सा प्रोजेक्ट मिला सवाल यह होना चाहिए कि इनकमटैक्स और इडी के छापों से परेशान कम्पनियों से हजारों करोड़ के चन्दे क्यूं लिए गए। यह कैसी दादागिरी है? दाऊद या छोटा शकील बन यह उगाही कैसी ????
भला एक निर्वचित सरकार, और चालू माफियागिरी, एक्सटोर्शन, कनपटी पर गन रखकर वसूली का धंधा करने वाले गुंडों में कुछ तो अंतर होना चाहिए था न मेरे हिसाब से!
शेल कम्पनियों से राजनीतिक चन्दा लेना कितना जायज है?? हैरानी तो यह भी कि
जितने का बिजनेस नही, उससे ज्यादा चन्दा दिया गया पर कैसे?? क्या यह साफ़ साफ़ मनी लॉन्ड्रिंग नही??अगर यह काम, इलेक्टोरल बांड ( जिस पर ईडी को सवाल करने की इजाजत नही) की जगह चेक या नगद होता, तो पैसा लेने और देने वाले को जमानत नही मिलती। शराब ठेका के बदले चुनावी चंदा लेने के "शक में" में दिल्ली का उपमुख्यमंत्री साल भर से जेल में है। वहां तो केस मनी लांड्रिंग का ही बनाया है पर यहाँ यह फर्क क्यूँ???
आम जनता के लिए नियम कायदे अलग और राजनीतिक पार्टियों के लिए अलग क्यूँ??? बात तो समान नागरिक संहिता की होती है फिर कॉर्पोरेट के कैश ट्रांसैक्शन पर आपत्ति क्यूँ नहीं ???
मैं मानती हूं कि पक्ष और विपक्ष के ऐसे सभी लोग जिन्होंने सत्ता में रहते हुए चंदा लिया है वोट मांगने का नैतिक हक खो चुके हैं। अवैध रूप से चंदा लेने वाले सभी दलों की सारी सम्पत्ति जप्त कर, बैंक खाते सीज कर, इनके नेताओ को जेल मे डालकर, चुनाव चिन्ह जप्त कर, चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए कह रही हूँ क्योंकि एक आम आदमी तो बैंक मे अगर 50,000 ₹ भी जमा करवाने जाता है तो उससे पैन और आधार सब मांग लिया जाता है! दस पंद्रह लाख रुपये की मामूली कैश ट्रांसैक्शन के लिए आयकर विभाग से नोटिस पर नोटिस जारी कर दिये जाते हैं मानो कत्ल के इल्ज़ाम में फांसी पर ही लटका देंगे !
यह बात मज़ाक नही, तंज भी नही पर शायद सुप्रीम कोर्ट के वश में भी नहीं। शेयर मार्केट ही लेलो शेयर मार्केट कम और टैक्स मार्केट ज्यादा लगती है! प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों के बोझ से दबी कुचली जनता में इतनी हिम्मत ही कहाँ कि वो फ्रांस जैसी क्रांति को दोहरा सके क्यूँकि देश के आज के हालात और फ्रांस में क्रांति से पूर्व के हालात बिल्कुल भी भिन्न नहीं हैं इसलिये ही तो वहां क्रान्तिकारियों का पहला निशाना आयकर भवन ही था!
नीलम सूद पालमपुर से हैं